गणेश महोत्सव : गणेश चतुर्थी की आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व ,राष्ट्रीय एवं इतिहास की महत्त्व और सामाजिक समरसता की शुरुआत !

! ! श्री गणेशाय नम: ! ! 

गणेश महोत्सव : गणेश चतुर्थी की आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व ,राष्ट्रीय एवं इतिहास की महत्त्व और सामाजिक समरसता की शुरुआत ! 


💞🕉🚩 जिस सार्वजनिक गणेशोत्सव को आजकल लोग इतनी धूमधाम से मनाते हैं उस पब्लिक फंक्शन को शुरू करने में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलात और विरोध का सामना करना पड़ा था।

हालांकि सन् 1894 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना दृढ़निश्चय कर चुके लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रख ही दी। बाद में सावर्जनिक गणेशोत्सव स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट करने का ज़रिया बना। 1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकजुट किया जाए।

अचानक उनके दिमाग में आइडिया आया, क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। विघ्नहर्ता गणेश पूजा भारत में प्राचीन काल से होती रही है। पेशवाओं ने गणेशोत्सव का त्यौहार मनाने की परंपरा शुरू की और सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करने का श्रेय तिलक को जाता है।

तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत की। हालांकि कांग्रेस पर 1885 से 1905 पर वर्चस्व रखने वाला व्योमेशचंद्र बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे नेताओं का उदारवादी खेमा नहीं चाहता था कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करें।


दरअसल, उदारवादी धड़ा इसलिए भी सार्वजनिक गणेशोत्सव का विरोध कर रहा था, क्योंकि 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे। लिहाजा, किसी भी दूसरे कांग्रेसी ने तिलक का साथ नहीं दिया। लेकिन तिलक ने चिंता नहीं की। वह मानते थे कि लक्ष्य पाने के लिए जीवन के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए।

बहरहाल, जब उदारवादियों की बात तिलक नहीं माने, तब कांग्रेस ने आशंका जताई कि गणेशोत्सव को सार्वजनिक करने से दंगे हो सकते हैं। यह दीगर बात है कि आयोजन के बाद हुए दंगे के लिए गणेशोत्सव को ही ज़िम्मेदार माना गया।

हालांकि उस समय तिलक का राष्ट्रीय स्तर पर साथ लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनरायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त ने दिया था। जो भी हो, तिलक इसके बाद तो अपने ज़माने के सबसे ज़्यादा प्रखर कांग्रेस नेता के रूप में लोकप्रिय हो गए।

बीसवीं सदी में तो सार्वजनिक गणेशोत्सव बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हो गया। वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला संस्था बनाई थी। इसका काम था देशभक्तिपूर्ण मराठी लोकगीत पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी।


कवि गोविंद को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। लिहाज़ा, गणेशोत्सव के ज़रिए आजादी की लड़ाई को मज़बूत किया जाने लगा।

इस तरह नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का आंदोलन छेड़ दिया था। बताया जाता है कि सार्वजनिक गणेशोत्सव से अंग्रेज घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी गंभीर चिंता जताई गई थी।

रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूमकर अंग्रेजी शासन का विरोध करती हैं और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ गीत गाती हैं। स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने और शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष ज़रूरी बताया जाता है। सार्वजनिक गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता तिलक, सावकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रेंगलर परांजपे,  मौलिकचंद्र शर्मा, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू होते थे।

तिलक उस समय युवा क्रांतिकारी दल के नेता बन गए थे। वह स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है।

तिलक 'स्वराज' के लिए संघर्ष कर रहे थे। तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया।दिया।

दरअसल, सन् 1857 की क्रांति के बाद स्वाधीनता आंदोलन में तिलक का प्रमुख भूमिका में होना सबसे महत्वपूर्ण रहा। कई लोग कहते हैं कि तिलक न होते तो आज़ादी पाने में कई दशक और लगते। यह भी सत्य है कि कांग्रेस के भीतर तिलक की घोर अवहेलना हुई। वह मोतीलाल नेहरू जैसे समकालीन नेताओं की तरह ब्रिटिश राज से समझौते की मुद्रा में नहीं रहे।

लिहाजा, वह ब्रिटिश राज के लिए चुनौती बनकर उभरे। तिलक की राय थी कि अंग्रेज़ों को यहां से किसी भी कीमत पर भगाना है। लिहाज़ा उन्होंने दूसरे कांग्रेस नेताओं की तरह ब्रिटिश सत्ता के समक्ष हाथ फैलाने के बजाय उन्हें भारत से खदेड़ने की राह मज़बूत करने में अपनी मेहनत लगाई।

स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा’, इस घोषणा के ज़रिए सन् 1914 में तिलक ने जनमानस में ज़बरदस्त जोश भर दिया। तिलक से पहले समस्त भारतीय समाज में देश के लिए सम्मान और स्वराष्ट्रवाद का इतना उत्कट भाव इतने प्रभावी ढंग से कोई जगा नहीं पाया था। भारत से ब्रिटिश राज की समाप्ति के लिए उन्होंने सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रवाह तेज़ करके अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ जनमत का निर्माण किया।

तिलक के नेतृत्व में जनमानस में पनपते असंतोष को फूटने से रोकने के लिए 1885 में वायसराय लॉर्ड डफ़रिन की सलाह पर एनेल ऑक्टेवियन ह्यूम ने 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। लिहाज़ा, अपने जन्म से ही कांग्रेस ने तिलक को दरकिनार करने की पूरी कोशिश की अंग्रेज़ों को अहसास था कि अगर तिलक का सामाजिक चेतना का प्रयास मज़बूत हुआ तो, उनकी विदाई का समय और जल्दी आ जाएगा। इसलिए शातिराना अंदाज़ में अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता आंदोलन पर नियंत्रण करने के लिए कांग्रेस की स्थापना की।

सन् 1895 में क्रिसमस के दौरान पुणे में कांग्रेस के 11 वें अधिवेशन में तिलक को आम राय से 'स्वागत समिति' का प्रमुख बनाया गया। लेकिन कांग्रेस पंडाल में सामाजिक परिषद आयोजित किए जाने के नाम पर पार्टी में ज़बरदस्त विवाद हुआ। लिहाज़ा, तिलक को कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। उनका मानना था कि स्वतंत्रता मांगने से कभी नहीं मिलेगी। इसे लेने के लिए खुला संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहना होगा।

दरअसल, अगर गणेशोत्सव के पौराणिक इतिहास पर नज़र डाले तो नारद पुराण की कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने शरीर के मैल से बालक की जीवंत मूर्ति बनाई और उसका नाम गणेश रखा तथा उन्हें दरवाज़े पर खड़ा कर दिया।

पार्वती ने कहा, “मैं स्नान करने जा रही हूं', इसलिए इस बीच किसी को अंदर नहीं आने देना।“ गणेशजी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान शिव को ही अंदर नहीं आने दिया। क्रोध में शंकरजी ने उनका गला धड़ से अलग कर दिया। इस पर पार्वती विलाप करने लगीं। इसके बाद शिवजी ने हाथी के बच्चे का सिर बालक के शरीर में जोड़कर उसे जीवित कर दिया। उसी चतुर्थी थी और तब से भगवान गणेश का जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।

कालांतर में गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव बन गए। हिंदू धर्म में उनको विशष्टि स्थान प्राप्त हो गया। अब तो कोई भी धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ, पूजन सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव हो, निर्विध्न कार्य संपन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है।

अगर इतिहास की बात करें तो महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना राजमाता जीजाबाई ने की थी।

महाराष्ट्र का गणेशोत्सव सबसे बड़ा त्यौहार है। यह उत्सव, हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। पहले गणेश पूजा घर में होती थी।

महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते समय तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छूआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। अंत में इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 💐🙏

गणेश चतुर्थी विशेष : पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव और सामाजिक एकता की शुरुआत ! 


हिन्दू मान्यता के अनुसार हर अच्छी शुरूआत व हर मांगलिक कार्य का शुभारम्भ भगवान गणेश के पूजन से किया जाता है। गणेश शब्द का अर्थ होता है जो समस्त जीव जाति के ईश अर्थात् स्वामी हो। गणेश जी को विनायक भी कहते हैं। विनायक शब्द का अर्थ है विशिष्ट नायक। वैदिक मत में सभी कार्य के आरम्भ जिस देवता का पूजन से होता है वही विनायक है। गणेश चतुर्थी के पर्व का आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व है। मान्यता है कि वे विघ्नो के नाश करने और मंगलमय वातावरण बनाने वाले हैं। 

भारत त्योहारों का देश है और गणेश चतुर्थी उन्हीं त्योहारों में से एक है। गणेशोत्सव को 10 दिनों तक बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इस त्योहार को गणेशोत्सव या विनायक चतुर्थी भी कहा जाता है। पूरे भारत में भगवान गणेश के जन्मदिन के इस उत्सव को उनके भक्त बहुत उत्साह के साथ मनाते हैं।

गणेश चतुर्थी का त्योहार महाराष्ट्र, गोवा, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु सहित पूरे भारत में काफी जोश के साथ मनाया जाता है। किन्तु महाराष्ट्र में विशेष रूप से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था।

गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेशजी की पूजा की जाती है। कई प्रमुख जगहों पर भगवान गणेश की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं स्थापित की जाती है। इन प्रतिमाओं का नो दिन तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में लोग गणेश प्रतिमाओं का दर्शन करने पहुंचते है। नो दिन बाद गणेश प्रतिमाओं को समुद्र, नदी, तालाब में विसर्जित किया जाता है। 

गणेश चतुर्थी का त्योहार आने से दो-तीन महीने पहले ही कारीगर भगवान गणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाना शुरू कर देते हैं। गणेशोत्सव के दौरान बाजारों में भगवान गणेश की अलग-अलग मुद्रा में बेहद ही सुंदर मूर्तियां मिल जाती है। गणेश चतुर्थी वाले दिन लोग इन मूर्तियों को अपने घर लाते हैं। कई जगहों पर 10 दिनों तक पंडाल सजे हुए दिखाई देते हैं जहां गणेश जी की मूर्ति स्थापित होती हैं। 

प्रत्येक पंडाल में एक पुजारी होता है जो इस दौरान चार विधियों के साथ पूजा करते हैं। सबसे पहले मूर्ति स्थापना करने से पहले प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। उन्हें कई तरह की मिठाईयां प्रसाद में चढ़ाई जाती हैं। गणेश जी को मोदक काफी पंसद थे। जिन्हें चावल के आटे, गुड़ और नारियल से बनाया जाता है। इस पूजा में गणपति को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है।


देश की आजादी के आन्दोलन में गणेश उत्सव ने बहुत महत्वपूण भूमिका निभायी थी। 1894 मे अंग्रेजो ने भारत मे एक कानून बना दिया था जिसे धारा 144 कहते हैं ! 

गणेश उत्सव का इतिहास महत्व :

पौराणिक मान्यता है कि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी की तिथि पर कैलाश पर्वत से माता पार्वती के साथ गणेश जी का आगमन हुआ था. इसी कारण इस दिन गणेश चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है. स्कंद पुराण, नारद पुराण और ब्रह्म वैवर्त पुराण में गणेश जी का वर्णन मिलता है. भगवान गणेश बुद्धि के दाता है. इसके साथ ही उन्हें विघ्नहर्ता भी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है. संकटों को हरने यानि दूर करने वाला. इस पर्व को विनायक चतुर्थी और विनायक चविटी के नाम से भी जाना जाता है.

इस त्योहार के साथ कई कहानियां भी जुड़ी हुई हैं जिनमें से उनके माता-पिता माता पार्वती और भगवान शिव के साथ जुड़ी कहानी सबसे ज्यादा प्रचलित है। शिवपुराण में रुद्रसंहिता के चतुर्थ खण्ड में वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपने मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया था। भगवान शिव ने जब भवन में प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे पार्वती नाराज हो उठीं। भयभीत देवताओं ने देवर्षि नारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।

भगवान शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्र पूज्य होने का वरदान दिया।


देश की आजादी के आन्दोलन में गणेश उत्सव ने बहुत महत्वपूण भूमिका निभायी थी। 1894 मे अंग्रेजो ने भारत मे एक कानून बना दिया था जिसे धारा 144 कहते हैं जो आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी लागू है। इस कानून मे किसी भी स्थान पर 5 से अधिक व्यक्ति इकट्ठे नहीं हो सकते थे। और ना ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे।

महान क्रांतिकारी बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 मे वन्देमातरम नामक एक गीत लिखा था जिस पर भी अंग्रेजों प्रतिबंध लगा कर गीत गाने वालों को जेल मे डालने का फरमान जारी कर दिया था। इन दोनों बातों से लोगो मे अंग्रेजो के प्रति बहुत नाराजगी व्याप्त हो गयी थी। लोगो मे अंग्रेजो के प्रति भय को खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा मे गणपति उत्सव का आयोजन किया गया।

1894 से पहले लोग अपने अपने घरों में गणपति उत्सव मनाते थे। लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे। पुणे के शनिवारवाडा के गणपति उत्सव मे हजारो लोगों की भीड़ उमड़ी। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि हम गणपति उत्सव मनाएगे अंग्रेज पुलिस उन्हे गिरफ्तार करके दिखाए। कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम मे एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी। लेकिन किसी धार्मिक समारोह मे उमड़ी भीड़ को नहीं।

पुणे का शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव :

20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा मे गणपति उत्सव मनाया गया। लोक मान्य तिलक वहां भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते। 1895 मे पुणे के शनिवारवाड़ा मे 11 गणपति स्थापित किए गए। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गई।

फिर धीरे -धीरे महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरो अहमदनगर, मुंबई, नागपुर, थाणे तक गणपति उत्सव फैलता गया। गणपति उत्सव में हर वर्ष हजारो लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगो का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गई।

1904 में लोकमान्य तिलक ने लोगो से कहा था-     गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना है। आजादी हासिल करना है और अंग्रेजो को भारत से भगाना है। आजादी के बिना गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं रहेगा। तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। आजादी के आन्दोलन में लोकमान्य तिलक द्धारा गणेश उत्सव को लोकोत्सव बनाने के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य था। लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारम्भ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल बना।

जिस उद्देश्य को लेकर लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव को प्रारम्भ करवाया था वो उद्देश्य आज कितने सार्थक हो रहें हैं। आज के समय में पूरे देश में पहले से कहीं अधिक धूमधाम के साथ गणेशोत्सव मनाये जाते हैं। 



Santoshkumar B Pandey at 4.55PM.

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