अहम् ब्रह्म अस्मि' का तात्पर्य 🕉⛳💐🙏

अहम् ब्रह्म अस्मि' का तात्पर्य 🕉⛳💐🙏

अहम् ब्रह्मास्मि का सरल हिन्दी अनुवाद है कि मैं ब्रह्म हूँ । सुनकर बहुधा लोग ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाया करते हैं। इसका कारण यह है लोग - जड़ बुद्धि व्याख्याकारों के कहे को अपनाते है। किसी भी अभिकथन के अभिप्राय को जानने के लिए आवश्यक है कि उसके पूर्वपक्ष को समझा जाय।
उपनिषद् अथवा इसके एक मात्र प्रमाणिक भाष्यकार आदिशंकराचार्य किसी व्यक्ति-मन में किसी भी तरह का अंध-विश्वास अथवा विभ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहते थे। 
इस अभिकथन के दो स्पष्ट पूर्व-पक्ष हैं-
१) वह धारणा जो व्यक्ति को धर्म का आश्रित बनाती है। जैसे, एक मनुष्य क्या कर सकता है करने वाला तो कोई और ही है। मीमांसा दर्शन का कर्मकांड-वादी समझ , जिसके अनुसार फल देवता देते हैं, कर्मकांड की प्राविधि ही सब कुछ है । वह दर्शन व्यक्ति सत्ता को तुच्छ और गौण करता है- देवता, मन्त्र और धर्म को श्रेष्ठ बताता है। एक मानव - व्यक्ति के पास पराश्रित और हताश होने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। धर्म में पौरोहित्य के वर्चस्व तथा कर्मकांड की 'अर्थ-हीन' दुरुहता को यह अभिकथन चुनौती देता है। 

२) सांख्य-दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है -प्रकृति करती है। बंधन में भी पुरूष को प्रकृति डालती है तो मुक्त भी पुरूष को प्रकृति करती है। यानि पुरूष सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है। इस विचारधारा के अनुसार तो मानव-व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व है ही नहीं। 

इन दो मानव-व्यक्ति-सत्ता विरोधी धारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए शंकराचार्य मानव-व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना करते हैं। आइये, समझे कि अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है?
अहम् = मैं , स्वयं का अभिमान , कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें । 
ब्रह्म= सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , सर्व-व्याप्त , वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं। 
अस्मि= हूँ, होने का भाव , बने होने का संकल्प । 
सबसे पहले तो सभी मनुष्य को यह दृढ़ता से महसूस करना चाहिए कि वह है । अपने को किसी दृष्टि से , किसी भी कारण से, किसी के भी कहने से अपने को हीन, तुच्छ, अकिंचन आदि कतई नहीं मानना चाहिए। यह एक तरह का आत्म-घात है, अपने अस्तित्व के प्रति द्रोह है। कोई यदि आपको यह विश्वास दिलाने का यत्न करे कि आप तुच्छ हैं तो आप उस बात को पागल को प्रलाप समझ कर नज़र-अंदाज़ कर जाएँ।
दूसरी बात यह कि आप में, यानि हर व्यक्ति में सबकुछ= कुछ भी कर सकने की शक्ति विद्यमान है। ब्रह्म कहे जाने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति में संभावन एक-सा है । कोई वहां उस गद्दी पर बैठ कर जो आपको ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बता रहा है, वह स्वयं दिग्भ्रमित है और आपको मुर्ख बनने का प्रयास कर रहा है। आप स्वयं सर्व-शक्तिमान ब्रह्म हैं, इस सत्य का आत्मानुभव बड़ा है। उपनिषद और शंकराचार्य हमें यही विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। 

( प्रमाणो सहित)
✴✴गीता तेरा ज्ञान अमृत ✴✴
श्रीमद्भगवद्गीता जी का अनमोल यथार्थ पुर्ण ब्रम्ह ज्ञान(गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)

1. मैं सबको जानता हूँ, मुझे कोई नहीं जानता!
( गीता अध्याय 7 मंत्र 26)
अध्याय 7 का श्लोक 26

वेद्, अहम्, समतीतानि, वर्तमानानि, च, अर्जुन,
भविष्याणि, च, भूतानि, माम्, तु, वेद,न,कश्चन।।26।।

अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (समतीतानि) पूर्वमें व्यतीत हुए (च) और (वर्तमानानि) वर्तमानमें स्थित (च) तथा (भविष्याणि) आगे होनेवाले (भूतानि) सब भूतोंको (अहम्) मैं (वेद) जानता हूँ (तु) परंतु (माम्) मुझको (कश्चन) कोई (न) नहीं (वेद) जानता। (26)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब प्राणियों को मैं जानता हूँ परंतु मुझको कोई नहीं जानता। 

2 . मैं साकार हूं परंतु अव्यक्त रहता हूँ!
(गीता अध्याय 9 मंत्र 4 )
अध्याय 9 का श्लोक 4

मया, ततम्, इदम्, सर्वम्, जगत्, अव्यक्तमूर्तिना,
मत्स्थानि, सर्वभूतानि, न, च, अहम्, तेषु, अवस्थितः।।4।।

अनुवाद: (मया) मेरे से तथा (अव्यक्त मूर्तिना) अदृश साकार परमेश्वर से (इदम्)यह (सर्वम् जगत्)सर्व संसार (ततम्) विस्तारित व घेरा हुआ है अर्थात् पूर्ण परमात्मा द्वारा ही रचा गया है तथा वही वास्तव में नियन्तता है। (च) तथा (मत्स्थानि) मेरे अन्तर्गत (सर्वभूतानि) जो सर्व प्राणी हैं (तेषु) उनमें (अहम्) मैं (न अवस्थितः) स्थित नहीं हूँ। क्योंकि काल अर्थात् ज्योति निरंजन ब्रह्म अपने इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में अलग से रहता है तथा प्रत्येक ब्रह्मण्ड में भी महाब्रह्मा, महाविष्णु, महाशिव रूप में भिन्न गुप्त रहता है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 में भी है। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है कहा है कि पूर्ण परमात्मा प्रत्येक प्राणी के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। वह सर्व प्राणियों को यन्त्रा की तरह भ्रमण कराता है। (4)

3. मैं अव्यक्त हूं और यह मेरा घटिया नियम है। भाव है।
(गीता अध्याय 6 मंत्र 30) निराकार क्यो रहता है इसकी वजह नहीं बताया सिर्फ अनुत्तम/घटिया भाव काहा है।
अध्याय 6 का श्लोक 30

यः, माम्, पश्यति, सर्वत्रा, सर्वम्, च, मयि, पश्यति,
तस्य, अहम्, न, प्रणश्यामि, सः, च, मे, न, प्रणश्यति।।30।।

अनुवाद: (यः) जो (सर्वत्रा) सब जगह (माम्) मुझे (पश्यति) देखता है (च) और (सर्वम्) सर्व को (मयि) मुझमें (पश्यति) देखता है (तस्य) उसके लिये (अहम्) मैं (न,प्रणश्यामि) अदृश्य नहीं होता (च) और (सः) वह (मे) मेरे से (न,प्रणश्यति) अदृश्य नहीं होता अर्थात् वह तो मेरे ही जाल में मेरी दृृष्टि है उसको पूर्ण ज्ञान नहीं है। (30)

4. मैं कभी मनुष्य की तरह आकार में नहीं आता यह मेरा घटिया नियम है।(गीता अध्याय 7 मंत्र 24-25)

अध्याय 7 का श्लोक 24

अव्यक्तम्, व्यक्तिम्, आपन्नम्, मन्यन्ते, माम्, अबुद्धयः।
परम्, भावम्, अजानन्तः, मम, अव्ययम्, अनुत्तमम्।।24।।

अनुवाद: (अबुद्धयः) बुद्धिहीन लोग (मम) मेरे (अनुत्तमम्) अश्रेष्ठ (अव्ययम्) अटल (परम्) परम (भावम्) भावको (अजानन्तः) न जानते हुए (अव्यक्तम्) छिपे हुए अर्थात् परोक्ष (माम्) मुझ कालको (व्यक्तिम्) मनुष्य की तरह आकार में कृष्ण अवतार (आपन्नम्) प्राप्त हुआ (मन्यन्ते) मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (24)

केवल हिन्दी अनुवाद: बुद्धिहीन लोग मेरे अश्रेष्ठ अटल परम भावको न जानते हुए छिपे हुए अर्थात् परोक्ष मुझ कालको मनुष्य की तरह आकार में कृष्ण अवतार प्राप्त हुआ मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (24)

अध्याय 7 का श्लोक 25

न, अहम्, प्रकाशः, सर्वस्य, योगमायासमावृतः।
मूढः, अयम्, न, अभिजानाति, लोकः, माम्, अजम्, अव्ययम्।।25।।

अनुवाद: (अहम्) मैं (योगमाया समावृतः) योगमायासे छिपा हुआ (सर्वस्य) सबके (प्रकाशः) प्रत्यक्ष (न) नहीं होता अर्थात् अदृश्य रहता हूँ इसलिये(माम्) मुझ (अजम्) जन्म न लेने वाले (अव्ययम्) अविनाशी अटल भावको (अयम्) यह (मूढः) अज्ञानी (लोकः) जनसमुदाय संसार (न) नहीं (अभिजानाति) जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप में आया समझता है। क्योंकि ब्रह्म अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना लेता है, यह दुर्गा का पति है इसलिए इस श्लोक में कह रहा है कि मैं श्री कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता। (25)

केवल हिन्दी अनुवाद: मैं योगमायासे छिपा हुआ सबके प्रत्यक्ष नहीं होता अर्थात् अदृश्य रहता हूँ इसलिये मुझ जन्म न लेने वाले अविनाशी अटल भावको यह अज्ञानी जनसमुदाय संसार नहीं जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप में आया समझता है। क्योंकि ब्रह्म अपनी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना लेता है, यह दुर्गा का पति है इसलिए इस श्लोक में कह रहा है कि मैं श्री कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता। (25)

विशेष:- गीता अध्याय 7 श्लोक संख्या 24.25 में गीता ज्ञान दाता प्रभु अपने विषय में कह रहा है कि मैं अव्यक्त रहता है अर्थात् मैं अपनी योग माया अर्थात् सिद्धी शक्ति से छिपा रहता हूँ। सर्व के समक्ष अपने वास्तविक काल रूप में नहीं आता। यह प्रथम अव्यक्त हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि ये सर्व प्राणी प्रलय के समय अव्यक्त में लीन हो जाते हैं। विचार करें यह दूसरा अव्यक्त हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त प्रभु से अर्थात् परब्रह्म से दूसरा अव्यक्त अर्थात् गुप्त परमात्मा तो सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता वह सनातन अव्यक्त अर्थात् वह आदि परोक्ष प्रभु तीसरा अव्यक्त परमात्मा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में कहा है कि उस गुप्त परमात्मा को अविनाशी अव्यक्त कहा जाता है। जिस परमात्मा के पास जाने के पश्चात् प्राणी फिर लौटकर संसार में नहीं आते वह स्थान वास्तव में पूर्ण मोक्ष स्थल है। वह स्थान मेरे अर्थात् गीता ज्ञान दाता के स्थान अर्थात् ब्रह्म लोक से श्रेष्ठ है। विचार करें यह तीसरा अव्यक्त अर्थात् गुप्त प्रभु सिद्ध हुआ जो वास्तव में अविनाशी है। यह प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 1.4 व 16.17 में है। जिसमें तीन परमात्माओं का वर्णन स्पष्ट है। एक क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म दूसरा अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म तथा तीसरा परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म का प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में है।

5.पहले मैं भी था और तू भी सब आगे भी होंगे (अध्याय 2 मंत्र 12) इसमें जन्म मृत्यु माना है
अध्याय 2 का श्लोक 12

न, तु, एव, अहम्, जातु, न, आसम्, न, त्वम्, न, इमे, जनाधिपाः,
न, च, एव, न, भविष्यामः, सर्वे, वयम्, अतः, परम्।।12।।

अनुवाद: (न) न (तु) तो ऐसा (एव) ही है कि (अहम्) मैं (जातु) किसी कालमें (न) नहीं (आसम्) था अथवा (त्वम्) तू (न) नहीं था अथवा (इमे) ये (जनाधिपाः) राजालोग (न) नहीं थे (च) और (न) न ऐसा (एव) ही है कि (अतः) इससे (परम्) आगे (वयम्) हम (सर्वे) सब (न) नहीं (भविष्यामः) रहेंगे। (12)

6. अर्जुन तेरे और मेरे कई जन्म हो चुके हैं तू नही जानता में जानता हु 
(अध्याय 4 मंत्र 5)
अध्याय 4 का श्लोक 5 (भगवान उवाच)

बहूनि, मे, व्यतीतानि, जन्मानि, तव, च, अर्जुन,
तानि, अहम्, वेद, सर्वाणि, न, त्वम्, वेत्थ, परन्तप।।5।।

अनुवाद: (परन्तप) हे परन्तप (अर्जुन) अर्जुन! (मे) मेरे (च) और (तव) तेरे (बहूनि) बहुत-से (जन्मानि) जन्म (व्यतीतानि) हो चुके हैं। (तानि) उन (सर्वाणि) सबको (त्वम्) तू (न) नहीं (वेत्थ) जानता किंतु (अहम्) मैं (वेद) जानता हूँ। (5)

7. मैं तो लोकवेद में ही श्रेष्ठ हूँ (अध्याय 15 मंत्र 18)
लोकवेद =सुनी सुनाई बात/झूठा ज्ञान।
अध्याय 15 का श्लोक 18

यस्मात्, क्षरम्, अतीतः, अहम्, अक्षरात्, अपि, च, उत्तमः,
अतः, अस्मि, लोके, वेदे, च, प्रथितः, पुरुषोत्तमः।।18।।

अनुवाद: (यस्मात्) क्योंकि (अहम्) मैं (क्षरम्) नाशवान् स्थूल शरीर से तो सर्वथा (अतीतः) श्रेष्ठ हूँ (च) और (अक्षरात्) अविनाशी जीवात्मासे (अपि) भी (उत्तमः) उत्तम हूँ (च) और (अतः) इसलिये (लोके वेदे)लोक वेद में अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से वेदमें (पुरुषोत्तमः) श्रेष्ठ भगवान (प्रथितः) प्रसिद्ध (अस्मि) हूँ पवित्रा गीता बोलने वाला ब्रह्म-क्षर पुरुष कह रहा है कि मैं तो लोक वेद में अर्थात् सुने-सुनाए ज्ञान के आधार पर केवल मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही श्रेष्ठ प्रभु प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पूर्ण परमात्मा तो कोई और ही है। जिसका विवरण श्लोक 17 में पूर्ण रूप से दिया है। (18)

कबीर परमात्मा ने उदाहरणार्थ कहा है:--
पीछे लागा जाऊं था लोक वेद के साथ, रस्ते में सतगुरू मिले दीपक दीन्हा हाथ।

भावार्थ है:-- कबीर प्रभु ने कहा है कि जब तक साधक को पूर्ण सन्त नहीं मिलता तब तक लोक वेद अर्थात् कहे सुने ज्ञान के आधार से साधना करता है उस आधार से कोई विष्णु जी को पूर्ण प्रभु परमात्मा कहता है कि क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म को पूर्ण ब्रह्म कहता है। परन्तु तत्वज्ञान से पता चलता है कि पूर्ण परमात्मा तो कबीर जी है।

8. इस संसार में दो तरह के भगवान हैं क्षर पुरुष(नास वान) अक्षर पुरुष(कुछ अविनाशी) इन दोनों से उत्तम परमात्मा तो कोई और ही है जो सबका भरण-पोषण करता है (अध्याय 15 मंत्र 16,17)
अध्याय 15 का श्लोक 16

द्वौ, इमौ, पुरुषौ, लोके, क्षरः, च, अक्षरः, एव, च,
क्षरः, सर्वाणि, भूतानि, कूटस्थः, अक्षरः, उच्यते।।16।।

अनुवाद: (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (पुरुषौ) भगवान हैं (क्षरः) नाशवान् (च) और (अक्षरः) अविनाशी (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों लोकों में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) भूतप्राणियोंके शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है। (16)

अध्याय 15 का श्लोक 17

उत्तमः, पुरुषः, तु, अन्यः, परमात्मा, इति, उदाहृतः,
यः, लोकत्रायम् आविश्य, बिभर्ति, अव्ययः, ईश्वरः।।17।।

अनुवाद: (उत्तमः) उत्तम (पुरुषः) भगवान (तु) तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से (अन्यः) अन्य ही है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) परमेश्वर (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है। यह प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 22 में भी है। (17)

9.उस परमात्मा को प्राप्त हो जाने के बाद कभी नष्ट/मृत्यु नहीं होती है (अध्याय 8 मंत्र 8,9,10)
अध्याय 8 का श्लोक 8

अभ्यासयोगयुक्तेन, चेतसा, नान्यगामिना।
परमम्, पुरुषम्, दिव्यम्, याति, पार्थ, अनुचिन्तयन्।।8।।

अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (अभ्यासयोगयुक्तेन) परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन (नान्यगामिना) दूसरी ओर न जानेवाले (चेतसा) चित्तसे (अनुचिन्तयन्) निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त (परमम्) परम (दिव्यम्) दिव्य (पुरुषम्) परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही (याति) प्राप्त होता है। (8)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त परम दिव्य परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है। (8)

अध्याय 8 का श्लोक 9

कविम्, पुराणम् अनुशासितारम्, अणोः, अणीयांसम्, अनुस्मरेत्,
यः, सर्वस्य, धातारम्, अचिन्त्यरूपम्, आदित्यवर्णम्, तमसः, परस्तात्।।9।।

अनुवाद: (कविम्) कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप में प्रसिद्ध होता है वह (पुराणम्) अनादि, (अनुशासितारम्) सबके नियन्ता (अणोः, अणीयांसम्) सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, (सर्वस्य) सबके (धातारम्) धारण-पोषण करने वाला (अचिन्त्यरूपम्) अचिन्त्य-स्वरूप (आदित्यवर्णम्) सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है (यः) जो साधक (तमसः) उस अज्ञानरूप अंधकारसे (परस्तात्) अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका (अनुस्मरेत्) सुमरण करता है। (9)

केवल हिन्दी अनुवाद: कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप से प्रसिद्ध होता है वह अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्य-स्वरूप सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है। जो उस अज्ञानरूप अंधकारसे अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका सुमरण करता है। (9)

अध्याय 8 का श्लोक 10

प्रयाणकाले, मनसा, अचलेन, भक्त्या, युक्तः, योगबलेन, च, एव, भ्रुवोः, मध्ये, प्राणम्, आवेश्य, सम्यक्, सः, तम्, परम् पुरुषम्, उपैति, दिव्यम्।।10।।

अनुवाद: (सः) वह (भक्त्या, युक्तः) भक्तियुक्त साधक (प्रयाणकाले) अन्तकालमें (योगबलेन) नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे (भ्रुवोः) भृकुटी के (मध्ये) मध्यमें (प्राणम्) प्राणको (सम्यक्) अच्छी प्रकार (आवेश्य) स्थापित करके (च) फिर (अचलेन) निश्चल (मनसा) मनसे (तम्) अज्ञात (दिव्यम्) दिव्यरूप (परम्) परम (पुरुषम्) भगवानको (एव) ही (उपैति) प्राप्त होता है। (10)

केवल हिन्दी अनुवाद: वह भक्तियुक्त साधक अन्तकालमें नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मनसे अज्ञात दिव्यरूप परम भगवानको ही प्राप्त होता है। (10)

10. मैं भी उस परमात्मा की शरण में हूँ जो अविनाशी है। (अध्याय 15 मंत्र ४)
अध्याय 15 का श्लोक 4

ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृत्तिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।

अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्) सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए। (4)
11. वह परमात्मा मेरा भी ईष्ट देव है (अध्याय 18 मंत्र 64)
अध्याय 18 का श्लोक 64

सर्वगुह्यतमम्, भूयः, श्रृणु, मे, परमम्, वचः,
इष्टः, असि, मे, दृढम्, इति, ततः, वक्ष्यामि, ते, हितम्।।64।।

अनुवाद: (सर्वगुह्यतमम्) सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय (मे) मेरे (परमम्) परम रहस्ययुक्त (हितम्) हितकारक (वचः) वचन (ते) तुझे (भूयः) फिर (वक्ष्यामि) कहूँगा (ततः) इसे (श्रृणु) सुन (इति) यह पूर्ण ब्रह्म (मे) मेरा (दृढम्) पक्का निश्चित (इष्टः) इष्टदेव अर्थात् पूज्यदेव (असि) है। (64)
12. जहां वह परमात्मा रहता है वह मेरा परम धाम है वह जगह जन्म - मृत्यु रहित है (अध्याय 8 मंत्र 21,22) उस जगह को वेदों में रितधाम, संतो की वाणी में सतलोक/सचखंड कहते हैं।
गीताजी में शाश्वत स्थान कहा है।
अध्याय 8 का श्लोक 21

अव्यक्तः, अक्षरः, इति, उक्तः, तम्, आहुः, परमाम्, गतिम्।
यम्, प्राप्य, न, निवर्तन्ते, तत् धाम, परमम्, मम्।।21।।

अनुवाद: (अव्यक्तः) अदृश अर्थात् परोक्ष (अक्षरः) अविनाशी (इति) इस नामसे (उक्तः) कहा गया है (तम्) अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को (परमाम्, गतिम्) परमगति (आहुः) कहते हैं (यम्) जिसे (प्राप्य) प्राप्त होकर मनुष्य (न, निवर्तन्ते) वापस नहीं आते (तत् धाम) वह लोक (परमम् मम्) मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है। (21)

केवल हिन्दी अनुवाद: अदृश अर्थात् परोक्ष अविनाशी इस नामसे कहा गया है अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को परमगति कहते हैं जिसे प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते वह लोक मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है। (21)

क्योंकि काल (ब्रह्म) सत्यलोक से निष्कासित है, इसलिए कह रहा है कि मेरा भी वास्तविक स्थान सत्यलोक है। मैं भी पहले वहीं रहता था तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है। जहाँ जाने के पश्चात् वापिस जन्म-मत्यु में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।

गीता अध्याय 8 श्लोक 18, 20, 21, 22 अध्याय 8 के श्लोकों में दो परमात्माओं का वर्णन है। श्लोक 18 में कहा है कि सर्व प्राणी इस अव्यक्त परमात्मा अर्थात् परब्रह्म में प्रलय समय लीन हो जाते है। फिर उत्पत्ति समय उत्पन्न हो जाते हैं। श्लोक 20-21 में कहा है कि उस अव्यक्त अर्थात् परब्रह्म से दूसरा अव्यक्त परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है जहाँ जाने के पश्चात् प्राणी फिर लौट कर संसार में नहीं आते। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। एक अव्यक्त गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में है। इस प्रकार तीन परमात्मा सिद्ध हुए। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16 व 17 में है।

अध्याय 8 का श्लोक 22

पुरुषः, सः, परः, पार्थ, भक्त्या, लभ्यः, तु, अनन्यया।
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्।।22।।

अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यस्य) जिस परमात्माके (अन्तःस्थानि) अन्तर्गत (भूतानि) सर्वप्राणी हैं और (येन) जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे (इदम्) यह (सर्वम्) समस्त जगत् (ततम्) परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20, 21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 65, 66 में कहा है। (सः) वह (परः) परम (पुरुषः) परमात्मा (तु) तो (अनन्यया) अनन्य (भक्त्या) भक्तिसे ही (लभ्यः) प्राप्त होने योग्य है। (22)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वप्राणी हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह समस्त जगत् परिपूर्ण है जिस के विषय में उपरोक्त श्लोक 20ए21 में तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में व अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62, तथा 65, 66 में कहा है। वह श्रेष्ठ परमात्मा तो अनन्य भक्तिसे ही प्राप्त होने योग्य है। (22)

13. मैं एक अक्षर ॐ हूं (अध्याय 10 मंत्र 25 अध्याय 9 मंत्र 17 अध्याय 7 के मंत्र 8 और अध्याय 8 के मंत्र 13 में )
अध्याय 10 का श्लोक 25

महर्षीणाम्, भृृगुः, अहम्, गिराम्, अस्मि, एकम्, अक्षरम्,
यज्ञानाम्, जपयज्ञः, अस्मि, स्थावराणाम्, हिमालयः।।25।।

अनुवाद: (अहम्) मैं (महर्षीणाम्) महर्षियोंमें (भृगुः) भृगु और (गिराम्) शब्दोंमें (एकम्) एक (अक्षरम्) अक्षर अर्थात् ओंकार (अस्मि) हूँ। (यज्ञानाम्) सब प्रकारके यज्ञोंमें (जपयज्ञः) जपयज्ञ और (स्थावराणाम्) स्थिर रहनेवालोंमें (हिमालयः) हिमालय पहाड़ (अस्मि) हूँ। (25)

अध्याय 9 का श्लोक 17

पिता, अहम्, अस्य, जगतः, माता, धाता, पितामहः,
वेद्यम्, पवित्राम्, ओंकारः, ऋक्, साम, यजुः, एव, च।।17।।

अनुवाद: (अहम्) (अस्य) इस (जगतः) इक्कीस ब्रह्मण्डों वाले जगत्का (धाता) धाता अर्थात् धारण करनेवाला (पिता) पिता (माता) माता (पितामहः) पितामह (च) और (वेद्यम्) जानने योग्य (पवित्राम्) पवित्रा (ओंकारः) ओंकार तथा (ऋक्) ऋग्वेद (साम) सामवेद (च) और (यजुः) यजुर्वेद आदि तीनों वेद भी मैं ही हूँ। (17)
अध्याय 7 का श्लोक 8

रसः, अहम्, अप्सु, कौन्तेय, प्रभा, अस्मि, शशिसूर्ययोः,
प्रणवः, सर्ववेदेषु, शब्दः, खे, पौरुषम्, नृषु।।8।।

अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (अहम्) मैं (अप्सु) जलमें (रसः) रस हूँ (शशिसूर्ययोः) चन्द्रमा और सूर्यमें (प्रभा) प्रकाश (अस्मि) हूँ (सर्ववेदेषु) सम्पूर्ण वेदोंमें (प्रणवः) ओंकार हूँ (खे) आकाशमें (शब्दः) शब्द और (नृषु) मनुष्योंमें (पौरुषम्) पुरुषत्व हूँ। (8)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! मैं जलमें रस हूँ चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश हूँ सम्पूर्ण वेदोंमें ओंकार हूँ आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व हूँ। (8)
अध्याय 8 का श्लोक 13

ओम्, इति, एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरन्, माम्, अनुस्मरन्,
यः, प्रयाति, त्यजन्, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम्।।13।।

अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11.12 में जिस गीता अध्याय 17 के श्लोक 23 में जो मन्त्रा को पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का कहा है उस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम में तीन अक्षर का जाप ओं-तत-सत् है उस में (माम् ब्रह्म) मुझ ब्रह्म का तो (इति) यह (ओम्) ओम्/ऊँ (एकाक्षरम) एक अक्षर है (व्यवाहरन्) उच्चारण करते हुए (अनुस्मरन्) स्मरन करने अर्थात् साधना करने का (यः) जो (त्यजन् देहम्) शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में (प्रयाति) साधना स्मरण करता हुआ मर जाता है (सः) वह (परमाम् गतिम्) परम गति पूर्ण मोक्ष को (याति) प्राप्त होता है। अपनी गति को तो गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम कहा है। इसलिए यहाँ पर पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष रूपी परम गति का वर्णन है(13)

केवल हिन्दी अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 11-12 में जिस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम जाप में तीन अक्षर का जाप कहा है उस में मुझ ब्रह्म का तो यह ओं/ऊँ एक अक्षर है उच्चारण करते हुए स्मरन करने अर्थात् साधना करने का जो शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में स्मरण करता हुआ मर जाता है वह परम गति पूर्ण मोक्ष को प्राप्त होता है। {अपनी गति को तो गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम कहा है। इसलिए यहाँ पर पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष रूपी परम गति का वर्णन है (13)}

भावार्थ: काल भगवान कह रहा है कि उस तीन अक्षरों (ओं,तत्,सत्) वाले मन्त्रा में मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम/ऊँ (ओं) अक्षर है। उच्चारण करके स्मरण करने का जो साधक अंतिम स्वांस तक स्मरण साधना करता हुआ शरीर त्याग जाता है वह परम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है। {अपनी गति को अध्याय 7 श्लोक 18 में (अनुतमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है।}

14. "ॐ" नाम ब्रम्ह का है
(अध्याय 8 मंत्र 13)
अध्याय 8 का श्लोक 13

ओम्, इति, एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरन्, माम्, अनुस्मरन्,
यः, प्रयाति, त्यजन्, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम्।।13।।

15. मैं काल हूं (अध्याय ११ मंत्र ३२)
अध्याय 11 का श्लोक 32(भगवान उवाच)

कालः, अस्मि, लोकक्षयकृृत्, प्रवृृद्धः, लोकान्, समाहर्तुम्, इह, प्रवृृत्तः,
ऋते, अपि, त्वाम्, न, भविष्यन्ति, सर्वे, ये, अवस्थिताः, प्रत्यनीकेषु, योधाः।।32।।

अनुवाद: (लोकक्षयकृत्) लोकांेका नाश करनेवाला (प्रवृद्धः) बढ़ा हुआ (कालः) काल (अस्मि) हूँ। (इह) इस समय (लोकान्) इन लोकोंको (समाहर्तुम्) नष्ट करने के लिये (प्रवृत्तः) प्रकट हुआ हूँ इसलिये (ये) जो (प्रत्यनीकेषु) प्रतिपक्षियोंकी सेनामें (अवस्थिताः) स्थित (योधाः) योद्धा लोग हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (त्वाम्) तेरे (ऋते) बिना (अपि) भी (न) नहीं (भविष्यन्ति) रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायेगा। (32)

16.वह परमात्मा ज्योति का भी ज्योति है (अध्याय 13 मंत्र १७)
अध्याय 13 का श्लोक १७
अध्याय 13 का श्लोक 17

ज्योतिषाम्, अपि, तत्, ज्योतिः, तमसः, परम्, उच्यते।
ज्ञानम्, ज्ञेयम्, ज्ञानगम्यम्, हृदि, सर्वस्य, विष्ठितम्।।17।।

अनुवाद: (तत्) वह पूर्णब्रह्म (ज्योतिषाम्) ज्योतियोंका (अपि) भी (ज्योतिः) ज्योति एवं (तमसः) मायाधारी काल से (परम्) अन्य (उच्यते) कहा जाता है वह परमात्मा (ज्ञानम्) बोधस्वरूप (ज्ञेयम्) जाननेके योग्य एवं (ज्ञानगम्यम्) तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और (सर्वस्य)सबके(हृदि)हृदयमें (विष्ठितम्)विशेषरूपसे स्थित है। (17)

17. अर्जुन तू भी उस परमात्मा की शरण में जा, जिसकी कृपा से तु परम शांति, सुख और परम गति/मोक्ष को प्राप्त होगा (अध्याय 18 मंत्र 62)
अध्याय 18 का श्लोक 62

तम्, एव, शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम्।।62।।

अनुवाद: (भारत) हे भारत! तू (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (तम्) उस परमेश्वरकी (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत (स्थानम्) स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा। (62)

18. ब्रम्ह का जन्म भी पूर्ण ब्रम्ह से हुआ है (अध्याय 3 मंत्र 14,15)
अध्याय 3 का श्लोक 14-15

अन्नात्, भवन्ति, भूतानि, पर्जन्यात्, अन्नसम्भवः,
यज्ञात्, भवति, पर्जन्यः, यज्ञः, कर्मसमुद्भवः।।14।।

कर्म, ब्रह्मोद्भवम्, विद्धि, ब्रह्म, अक्षरसमुद्भवम्,
तस्मात्, सर्वगतम्, ब्रह्म, नित्यम्, यज्ञे, प्रतिष्ठितम्।।15।।

अनुवाद: (भूतानि) प्राणी ( अन्नात्) अन्नसे (भवन्ति) उत्पन्न होते हैं , (अन्नसम्भवः) अन्नकी उत्पत्ति (पर्जन्यात्) वृ ष्टिसे होती है (पर्जन्यः) वृृष्टि (यज्ञात्) यज्ञसे (भवति) होती है और (यज्ञः) यज्ञ (कर्मसमुद्भवः) विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। (कर्म) कर्मको तू (ब्रह्मोद्भवम्) ब्रह्मसे उत्पन्न और (ब्रह्म) ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष को (अक्षरसमुद्भवम्) अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ (विद्धि) जान। (तस्मात्) इससे सिद्ध होता है कि (सर्वगतम्) सर्वव्यापी (ब्रह्म) परमात्मा (नित्यम्) सदा ही (यज्ञे) यज्ञमें (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है अर्थात् यज्ञों का भोग लगा कर फल दाता भी वही पूर्णब्रह्म है। (इसी का प्रमाण पवित्रा गीता अध्याय 4 श्लोक 13 में है कि गुणों के आधार से कर्म लगाकर चार वर्ण बनाए हैं तथा कर्म का लगाने वाला कत्र्ता मैं ब्रह्म ही हूं।)(14-15)

19. तत्वदर्शी संत मुझे पुरा जान लेता है (अध्याय 18 मंत्र 55)
अध्याय 18 का श्लोक 55

भक्त्या, माम्, अभिजानाति, यावान्, यः, च, अस्मि, तत्त्वतः,
ततः, माम्, तत्त्वतः, ज्ञात्वा, विशते, तदनन्तरम्।।55।।

अनुवाद: (भक्त्या) वह भक्त (माम्) मुझ को (यः) जो (च) और (यावान्) जितना (अस्मि) हूँ, (तत्त्वतः, अभिजानाति) ठीक वैसा का वैसा तत्वसे जान लेता है तथा (ततः) उस भक्तिसे (माम्) मुझको (तत्त्वतः) तत्वसे (ज्ञात्वा) जानकर (तदनन्तरम्) तत्काल ही (विशते) पूर्ण परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाता है। (55)

20. मुझे तत्व से जानो
(अध्याय 4 मंत्र 14)
अध्याय 4 का श्लोक 14

न, माम्, कर्माणि, लिम्पन्ति, न, मे, कर्मफले, स्पृृहा,
इति, माम्, यः, अभिजानाति, कर्मभिः, न, सः, बध्यते।।14।।

अनुवाद: (कर्मफले) कर्मोंके फलमें (मे) मेरी (स्पृहा) स्पृृहा (न) नहीं है इसलिये (माम्) मुझे (कर्माणि) कर्म (न,लिम्पन्ति) लिप्त नहीं करते (इति) इस प्रकार (यः) जो (माम्) मुझ काल-ब्रह्म को (अभिजानाति) तत्वसे जान लेता है (सः) वह भी (कर्मभिः) कर्मोंसे (न) नहीं (बध्यते) बंधता अर्थात् गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहे तत्वदर्शी संत की खोज करके गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहे उस परमात्मा की शरण में जाकर पूर्ण परमात्मा की भक्ति करके कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है। (14)

21. तत्वज्ञान से तु पहले अपने पुराने /84 लाख में जन्म पाने का कारण जानेगा, बाद में मुझे देखेगा /की मैं ही इन गंदी योनियों में पटकता हू, (अध्याय 4 मंत्र 35)
अध्याय 4 का श्लोक 35

यत्, ज्ञात्वा, न, पुनः, मोहम्, एवम्, यास्यसि, पाण्डव,
येन, भूतानि, अशेषेण, द्रक्ष्यसि, आत्मनि, अथो, मयि।।35।।

अनुवाद: (यत्) जिस तत्व ज्ञान को (ज्ञात्वा) जानकर (पुनः) फिर तू (एवम्) इस प्रकार (मोहम्) मोहको (न) नहीं (यास्यसि) प्राप्त होगा तथा (पाण्डव) हे अर्जुन! (येन) जिस ज्ञानके द्वारा तू (भूतानि) प्राणियोंको (अशेषेण) पूर्ण रूपसे (आत्मनि) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है उस पूर्ण परमात्मा में (अथो) और पीछे (मयि) मुझे (द्रक्ष्यसि) देखेगा कि मैं काल हूँ यह जान जाएगा। (35)

22. मनुष्यों का ज्ञान ढका हुआ हैं। (अध्याय 5 मंत्र 16)
:- मतलब किसी को भी परमात्मा का ज्ञान नहीं है।
अध्याय 5 का श्लोक 16

ज्ञानेन, तु, तत्, अज्ञानम्, येषाम्, नाशितम्, आत्मनः,
तेषाम्, आदित्यवत्, ज्ञानम्, प्रकाशयति, तत्परम्।।16।।

अनुवाद: (तु) दूसरी ओर (येषाम्) जिनका (अज्ञानम्) अज्ञान (आत्मनः) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा का अभेद साथी है इसलिए आत्मा कहा जाता है उस पूर्ण परमात्मा के (तत् ज्ञानेन) तत्वज्ञान से (नाशितम्) नष्ट हो गया है (तेषाम्) उनका वह (ज्ञानम्) तत्वज्ञान (तत्परम्) उस पूर्ण परमात्मा को (आदित्यवत्) सूर्य के सदृश (प्रकाशयति) प्रकाश कर देता है अर्थात् अज्ञान रूपी अंधेरा हटा देता है। (16)

कबीर, तारा मण्डल बैठ कर चांद बड़ाई खाए। उदय हुआ जब सूरज का स्यों तारों छिप जाए।।

कबीर, और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, तत्वज्ञान सो ज्ञान।जैसे गोला तोप का करता चले मैदान।।


23. ब्रम्ह लोक से लेकर नीचे के ब्रम्हा/विष्णु/शिव लोक, पृथ्वी ये सब पुर्नावृर्ति(नाशवान) है (अध्याय 8 मंत्र 16)
अध्याय 8 का श्लोक 16

आब्रह्मभुवनात्, लोकाः, पुनरावर्तिनः, अर्जुन,
माम्, उपेत्य, तु, कौन्तेय, पुनर्जन्म, न, विद्यते।।16।।

अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (आब्रह्मभुवनात्) ब्रह्मलोक से लेकर (लोकाः) सब लोक (पुनरावर्तिनः) बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं (तु) परन्तु (कौन्तेय) हे कुन्ती पुत्रा (न, विद्यते) जो यह नहीं जानते वे (माम्) मुझे (उपेत्य) प्राप्त होकर भी (पुनः) फिर (जन्मः) जन्मते हैं। (16)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक बारम्बार उत्पत्ति नाश वाले हैं परन्तु हे कुन्ती पुत्रा जो यह नहीं जानते वे मुझे प्राप्त होकर भी फिर जन्मते हैं। (16)



विशेष:- गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता अध्याय 10 श्लोक 17 में विद्याम का अर्थ जानूँ किया है, गीता अध्याय 6 श्लोक 23 तथा अध्याय 14 श्लोक 11 में विद्यात का अर्थ जानना चाहिए किया है तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 15 में तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 17 में वेद्यः तथा वेद्यम् का अर्थ जानने योग्य तथा जानना चाहिए किया है। इसलिए विद्यते का अर्थ ‘जानते‘ सही है। यदि इन श्लोकों 15-16 का अर्थ अन्य अनुवाद कर्ताओं वाला सही माना जाए कि ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता को) को प्राप्त होने के पश्चात् पुर्नजन्म नहीं होता तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12ए अध्याय 4 श्लोक 5 व 9 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 का अर्थ सही नहीं लगेगा। इसलिए यही उपरोक्त अनुवाद जो मुझ दास(संत रामपाल जी महाराज) द्वारा किया गया है वह उचित है।

24. तत्वदर्शी संत को दण्डवत प्रणाम करना चाहिए (तन, मन, धन, वचन से और अहं त्याग कर आसक्त हो जाना।
(अध्याय 4 मंत्र 34)
अध्याय 4 का श्लोक 34

तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया,
उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्त्वदर्शिनः।।34।।

अनुवाद: पवित्रा गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि उपरोक्त नाना प्रकार की साधना तो मनमाना आचरण है। मेरे तक की साधना की अटकल लगाया ज्ञान है, परन्तु पूर्ण परमात्मा के पूर्ण मोक्ष मार्ग का मुझे भी ज्ञान नहीं है। उसके लिए इस मंत्रा 34 में कहा है कि उस (तत्) तत्वज्ञान को (विद्धि) समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतों को (प्रणिपातेन) भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी (सेवया) सेवा करनेसे और कपट छोड़कर (परिप्रश्नेन) सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे (ते) वे (तत्वदर्शिनः) पूर्ण ब्रह्म को तत्व से !

अंत में ,
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों !
अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो।  तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो , उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ । 
जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा-उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य। 💞🌹🌹💐🙏




Santoshkumar B Pandey at 10.15pm.

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