जनेऊ पहनने का धार्मिक महत्व और वैज्ञानिक कारण और नियम !

जनेऊ पहनने का धार्मिक महत्व और वैज्ञानिक कारण और नियम ! 

धार्मिक महत्व : 
जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो चीज़ मन मे आती है वो है धागा दूसरी चीज है ब्राम्हण ।। जनेऊ का संबंध क्या सिर्फ ब्राम्हण से है , ये जनेऊ पहनाए क्यों है , क्या इसका कोई लाभ है, जनेऊ क्या ,क्यों ,कैसे आज आपका परिचय इससे ही करवाते है ----

* जनेऊ_को_उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है ।।

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों (आप सभी को 16 संस्कार पता होंगे लेकिन वो प्रधान संस्कार है 8 उप संस्कार है जिनके विषय मे आगे आपको जानकारी दूँगा ) में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीतधारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है !
"ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"

* हिन्दू_धर्म_में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था(वर्ण व्यवस्था)।।

* लड़की_जिसे_आजीवन_ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।


* जनेऊ_का_आध्यात्मिक_महत्व -- 

#जनेऊ_में_तीन-सूत्र –  त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।

# जनेऊ_की_लंबाई : जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।


# जनेऊ_के_लाभ -- 

#प्रत्यक्ष_लाभ जो आज के लोग समझते है - 

""जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिये""।।

#जनेऊ_में_नियम_है_कि - 
मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है।

मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है 

#वो_लाभ_जो_अप्रत्यक्ष_है जिसे कम लोग जानते है -

शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस point को हम एक्युप्रेश करते है ।।


 कैसे आइये समझते है 

#कान_के_नीचे_वाले_हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं तो प्यास कम लगेगी।

एक्युप्रेशर की शब्दवली में इसे  point जीवी 20 या डीयू 20 - 
इसका लाभ आप देखे  -
#जीबी 20 - 
कहां : कान के पीछे के झुकाव में। 
उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा, और यूटरस की बीमारियों में असरदार।(दिए गए पिक में समझे)

इसके अलावा इसके कुछ अन्य लाभ जो क्लीनिकली प्रोव है - 

1. #बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।
2. #जनेऊ_के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
3. #जनेऊ_पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।
4. #जनेऊ_को_दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
5. #दाएं_कान_की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
6. #कान_में_जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
7. #कान_पर_जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।



जनेऊ का वैज्ञानिक रहस्य ?

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है, लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है,  तो आइए जानें कि सच क्या है ? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है !

 क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है !

दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है, दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता !


आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है,
एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है,
एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का , अब एक एक जनेऊ में 9 – 9 धागे होते हैं,  जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 – 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है, अब इन 9 – 9 धांगों के अंदर से 1 – 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 – 27 धागे होते हैं !अर्थात्अहमें पत्नी और पति पक्ष के 27 – 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है !

 अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है, अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है,  1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है, जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं , तो हमें असीम शांति की प्राप्ति हो जाती है, तो यह रहा जनेऊ का वास्तविक रहस्य !

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है , इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है, यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है, शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है !

यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है, यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है,  यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता, अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है।

यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है, इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारण वश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है !

वैदिक अनुसार यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक उपनयन संस्कार है जिसमें जनेऊ पहना जाता है इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है. यज्ञोपवीत को जनेऊ, ब्रहासूत्र कहते है. यज्ञोपवीत= यज्ञ + उपवती अर्थात जिसे यज्ञ कराने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो यज्ञोपवीत धारण किये बिना किसी को गायत्री मंत्र करने या वेद पाठ करने का अधिकार नहीं है, और इसके बाद ही विद्यारंभ होता है।

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है. यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ होता है !


यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है, इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं. ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है. तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है, तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।

 अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है. . . . . .

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् |
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ||

ब्रह्मचारी को तीन धागों बाला और विवाहित को 6 धागो बाला जनेऊ धारण करना चाहिये।

धार्मिक महत्व :- शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है. आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है. यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

शारीरिक महत्व :- यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव इसका सदैव धारण करना चाहिए।

शौच के समय जनेऊ कान में क्यों बांधते है ?
“यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत ”

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है. हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें. यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है.जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

 इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है !

दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है दाएं कान को ब्रहमसूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है. यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रहमसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है !

मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है।

आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है. जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते.

जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है, वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता ,  जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है!

यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है, जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है !
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है ! किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है !

 अंडवृद्धि के सात कारण हैं ! मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है, दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है, इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है !

यज्ञोपवीत बाएँ कंधे पर ही क्यों ?

यज्ञोपवीत व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है.इस प्रकार धारण करने के मूल में भी एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है. शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है.यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है. यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता !

अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है !

सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है, यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है !

आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता,
अब भी कोई ना माने तो ना मानो परन्तु हमें तो अत्यंत गर्व है हिंदुत्व के “सूक्ष्म विज्ञान” व आध्यात्म के ज्ञान पर।



जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं। 'उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू समाज के हर वर्ग और स्त्रियों को जनेऊ धारण करना चाहिए। लोग जनेऊ धारण इसलिए नहीं करते क्योंकि फिर उन्हें उसके नियमों का पालनकर सादगीपूर्ण जीवन यापन करना होता है। जनेऊ के नियमों का पालन करके आप निरोगी जीवन जी सकते हैं। हम यहां जनेऊ पहनने के आपको 9 लाभ बता रहे हैं।
 
1. जीवाणुओं-कीटाणुओं से बचाव : जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं, वे मल-मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुंह बंद रखते हैं। इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणुओं और कीटाणुओं के प्रकोप से बच जाते हैं।
 
2. गुर्दे की सुरक्षा : यह नियम है कि बैठकर ही जलपान करना चाहिए अर्थात खड़े रहकर पानी नहीं पीना चाहिए। इसी नियम के तहत बैठकर ही मूत्र त्याग करना चाहिए। उक्त दोनों नियमों का पालन करने से किडनी पर प्रेशर नहीं पड़ता। जनेऊ धारण करने से यह दोनों ही नियम अनिवार्य हो जाते हैं।
 

3. हृदय रोग व ब्लडप्रेशर से बचाव : शोधानुसार मेडिकल साइंस ने भी यह पाया है कि जनेऊ पहनने वालों को हृदय रोग और ब्लडप्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है। जनेऊ शरीर में खून के प्रवाह को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है। ‍चिकित्सकों अनुसार यह जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।

4. लकवे से बचाव : जनेऊ धारण करने वाला आदमी को लकवे मारने की संभावना कम हो जाती है क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दांत पर दांत बैठा कर रहना चाहिए। मल मूत्र त्याग करते समय दांत पर दांत बैठाकर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता।

 
5. कब्ज से बचाव : जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने का नियम है। ऐसा करने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों पर भी दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से है। इन नसों पर दबाव पड़ने से कब्ज की श‍िकायत नहीं होती है। पेट साफ होने पर शरीर और मन, दोनों ही सेहतमंद रहते हैं।
 
 
6. शुक्राणुओं की रक्षा : दाएं कान के पास से वे नसें भी गुजरती हैं, जिसका संबंध अंडकोष और गुप्तेंद्रियों से होता है। मूत्र त्याग के वक्त दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से वे नसें दब जाती हैं, जिनसे वीर्य निकलता है। ऐसे में जाने-अनजाने शुक्राणुओं की रक्षा होती है। इससे इंसान के बल और तेज में वृद्ध‍ि होती है।

 
7. स्मरण शक्ति की रक्षा : कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्त‍ि का क्षय नहीं होता है। इससे स्मृति कोष बढ़ता रहता है। कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें एक्ट‍िव हो जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्त‍ि से होता है। दरअसल, गलतियां करने पर बच्चों के कान पकड़ने या ऐंठने के पीछे भी मूल कारण यही होता था।

 8. आचरण की शुद्धता से बढ़ता मानसिक बल : कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है। पवित्रता का अहसास होने से आचरण शुद्ध होने लगते हैं। आचरण की शुद्धत से मानसिक बल बढ़ता है।
 
9. बुरी आत्माओं से रक्षा : ऐसी मान्यता है कि जनेऊ पहनने वालों के पास बुरी आत्माएं नहीं फटकती हैं। इसका कारण यह है कि जनेऊ धारण करने वाला खुद पवित्र आत्मरूप बन जाता है और उसमें स्वत: ही आध्यात्म‍िक ऊर्जा का विकास होता है।


 मधुबनी में बने जनेऊ की विदेशों में भी भारी मांग, लघु-उद्योग के रूप में हो रहा विकास।

जनेऊ बनाने का काम प्राचीन काल से महिलाएं करती आ रही हैं, लेकिन बिहार के मधुबनी जिले के पांच दर्जन से अधिक गांवों में यह काम बड़े पैमाने पर होता है। वहां के बने जनेऊ कुछ तो खास हैं, कि उनकी मांग विदशों तक है। सौ से अधिक महिलाएं इस काम में स्‍थाई रूप से लगीं हैं। कोरोना महामारी के संकट काल में लॉकडाउन के दौरान भी घर से चलने वाला यह धंधा जारी रहा।

सनातन धर्म के विभिन्‍न संस्‍कारों में उपनयन (यज्ञोपवीत) भी एक संस्कार है। उपनयन का अर्थ है ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। प्राचीनकाल में शिष्य, संत और ब्राह्मण को दीक्षा देने में जनेऊ धारण करना होता था। वर्ण व्‍यवस्‍था से जोड़कर देखने और इससे जुड़ी आलोचनाओं से हटकर देखें तो खास वर्ग के लिए यह आस्‍था से जुड़ा मामला है।
जब मांग है तो आपूर्ति तो होगी ही. मधुबनी के गांवों में जनेऊ का निर्माण और व्‍यापार इसी मांग व आपूर्ति के नियम पर आधारित है.

सवाल उठता है कि आखिर क्‍या खास है मधुबनी के गांवों के जनेऊ में?
इस जनेऊ के सूत बापू के स्वदेशी आंदोलन के प्रतीक चरखा (या तकली) से काटे जाते हैं। खादी के सूत से बने ये जनेऊ अपनी मजबूती के कारण लंबे समय तक चलते हैं। इसकी बड़ी खासियत पतला होना है। एक जमाने में भारत के बने मलमल का पूरा थान अंगूठी के भीतर से निकल जाता था। यह जनेऊ भी इतना पतला होता है कि बड़ी इलायची के छिलके (खोल) के भीतर समा जाए।

जनेऊ को मल-मूत्र त्याग के समय कान पर लपेटा जाता है। माना जाता है कि शौच के समय जनेऊ को कान के ऊपर लपेटने से उसके पास से गुजरने वाली उन नसों पर दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से होता है। इससे कब्ज की समस्या दूर होती है। कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें भी खुल जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्ति से होता है। शौच के समय नसों पर पड़ने वाले इस दबाव के कारण रक्‍तचाप पर नियंत्रण होता है, तथा मस्तिष्‍क आघात का खतरा भी कम हो जाता है। माना जाता है कि जनेऊ जितना पतला होगा, नसों पर दबाव उतना ही अधिक डालेगा।

इस खास जनेऊ के निर्माण के लिए मुख्य रूप से चरखा, रूई, सूत व रंग की जरूरत होती है. 10 से 15 हजार की लागत से इसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है। वैसे, ये सूत स्थानीय खादी भंडार में भी उपलब्ध हो जाते हैं। वहीं, मांग को देखते हुए स्‍थानीय बाजार में भी ऐसे सूत उपलब्‍ध हैं।

मधुबनी के राजनगर प्रखंड के मंगरौनी गांव की निवासी रीता पाठक ऐसे जनेऊ बनाती हैं। वो बताती हैं कि करीब सौ वर्ष पुराना चरखा व तकली उन्हें ससुराल में धरोहर के रूप में मिले हैं। वे प्रतिदिन 30 से 50 जनेऊ बना लेती हैं। लॉकडाउन अवधि में तो उन्‍होंने 12 सौ जनेऊ तैयार किए। रीता पाठक बताती हैं कि एक महिला हर साल 12 से 13 हजार तक जनेऊ तैयार कर लेती है।

मधुबनी शहर के गिलेशन बाजार के जनेऊ विक्रेता प्रशांत कुमार कहते हैं कि चूंकि जनेऊ का खरीदार सीमित वर्ग के लोग हैं, इसलिए आय तो अधिक नहीं होती, लेकिन अन्‍य सामानों के साथ इसकी बिक्री भी होती है। जहां तक जनेऊ बनाने वालों की बात है, बकौल रीता पाठक, सालाना 50 से 75 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।

मधुबनी के उम्दा क्वालिटी के इस जनेऊ की मांग विदेशों में भी है। मधुबनी के जनेऊ विक्रेता युगल किशोर महथा ने बताया कि इसकी मांग हमेशा बनी रहती है। हां, मांगलिक कार्यों, लग्न व उपनयन के दिनों में मांग बढ़ जाती है। इसकी आपूर्ति जिले के गांवों से होती है, ज्यादा मांग होने पर आर्डर देकर भी बनवाते हैं। विदेश से आने वाले अप्रवासी यहीं से जनेऊ लेकर जाते हैं। स्थानीय बाजार में इसकी कीमत आठ से 12 रुपये, जबकि महानगरों व विदेशों में 30 से 40 रुपये तक होती है।


महिलाएं भी धारण कर सकती हैं जनेऊ : 

महिलाएं भी करा सकती हैं उपनयन संस्कार

हिंदू धर्म की वैदिक रीतियां देती हैं महिला उपनयन संस्कार की इजाजत 

महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी का अधिकार वैदिक काल से प्राप्त है। तभी तो वैदिक रीति में महिलाओं को भी उपनयन संस्कार की इजाजत दी गई है। मातृ शक्ति वैदिक काल से सर्वोपरि और पूजी जाति रही है। 

आर्ट ऑफ लिविंग के जरिये रविशंकर महाराज पूरे देश में महिलाओं को जगा रहे हैं कि पुरुषों की तरह उन्हें भी वैदिक काल से उपनयन संस्कार कराने का अधिकार प्राप्त है। उत्तर प्रदेश में भी जगह-जगह आयोजन हो रहा है। 

जिम्मेदारियों का अहसास कराता है जनेऊ

-उपनयन संस्कार के बाद धारण किया जाता है जनेऊ

-जनेऊ केतीन धागे हैं तीन जिम्मेदारियों के प्रतीक

क्। परिवार के प्रति जिम्मेदारी

ख्। अपना ज्ञानवर्धन करने की जिम्मेदारी

फ्। समाज के प्रति जिम्मेदारी

उपनयन संस्कार से लाभ

-कंट्रोल में रहेगी शारीरिक व मनोस्थिति

-सकारात्मक ऊर्जा का होगा संचार

-मन रहेगा एकाग्रचित

-फोकस प्वाइंट, कंसंट्रेशन होगा बेहतर

-ध्यान की गहराई में जाने में मददगार साबित होगा उपनयन संस्कार

उपनयन के बाद ये करना होगा

-महिलाओं को भी जनेऊ पहनना पड़ेगा

-जनेऊ धारण करने के बाद पुरुषों के लिए जो नियम है, महिलाओं को भी उन्हीं नियमों का पालन करना होगा

-तामसिक भोजन, मांस आदि से रहना होगा दूर

-सात्विक प्रक्रिया का ही करना होगा पालन

-प्रतिदिन करना होगा गायत्री मंत्र का जाप

-जागृत, स्वप्न, सुसुप्ता, तुरया- अवस्था में ध्यान से ज्यादा शांति मिलती है-

मन स्थिर रहेगा तो ऊर्जा का संचार होगा


ये है उपनयन संस्कार की प्रक्रिया-

-उपनयन संस्कार के लिए आने-वाले महिला-पुरुष या फिर बटुक की कराई जाती है जल से शुद्धि

-फिर सभी दिशाओं में कराया जाता है प्रणाम

-प्रणाम के बाद होता है मंत्र का आह्वान

-मंत्रों के आह्वान के बाद गायत्री मंत्र का जाप, फिर प्राणायाम और हवन

-चार दिन की प्रक्रिया के बाद पूरा हो जाता है !


 उपनयन संस्कार

गायत्री मंत्र जाप से मिलती है अद्भुत शक्ति

ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात

गायत्री मन्त्र एक अपूर्व शक्तिशाली मंत्र है, जिसे रक्षा कवच मन्त्र भी कहा गया है। यह वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता है, इसीलिए उपनयन संस्कार के दौरान गायत्री मंत्र का जाप कराया जाता है।

वेद शास्त्र महिलाओं और पुरुषों में भेद नहीं करते हैं। उपनयन गुरु के पास जाने और शिक्षा प्राप्त करने का एक संस्कार है। आर्ट ऑफ लिविंग में चल रहे उपनयन संस्कार के जरिए हमें ये जानकारी मिल रही है कि मन को कैसे एकाग्र किया जा सकता है। जीवन को किस तरह और बेहतर बनाया जा सकता है।

यज्ञोपवीत- धारण करने की आवश्यकता

उपनयन के समय पिता तथा आचार्यद्वारा त्रैवर्णिक वटुओं को जो यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है, ब्रह्मचर्य, गार्हस्थय, वानप्रस्थ- तीनों आश्रमों में उसे अनिवार्यत: अखण्डरुप में धारण किये रहने का शास्त्रों का आदेश है। किंतु धारण किया हुआ यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है।

यज्ञोपवीत कब बदलें?- 
यदि यज्ञोपवीत कंधे से सरक कर बायें हाथ के नीचे आ जाय, गिर जाय, कोई धागा टूट जाय, शौच आदि के समय कानपर डालना भूल जाय और अस्पृश्य से स्पर्श हो जाय तो नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये। गृहस्थ और वानप्रस्थ- आश्रम वाले को दो यज्ञोपवीत पहनना आवश्यक है। ब्रह्मचारी एक जनेऊ पहन सकता है। चादर और गमछे के लिये एक यज्ञोपवीत और धारण करे। चार महीने बीतने पर नया यज्ञोपवती पहन ले। इसी तरह उपाकर्म में, जननाशौच और मरणाशौच में, श्राद्ध में, यज्ञ आदिमें, चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के उपरान्त भी नये यज्ञोपवीत को धारण करना अपेक्षित है। यज्ञोपवती कमरतक रहे। 

जैसे पत्थर ही भगवान नहीं होता, प्रत्युत मन्त्रों से भगवान को उसमें प्रतिष्ठित किया जाता है, वैसे ही यज्ञोपवीत धागामात्र नहीं होता। प्रत्युत निर्माण के समय से ही यज्ञोपवीत में संस्कारों का आधान होने लगता है। बन जाने पर इसकी ग्रन्थियों में और नवों तन्तुओं में ओंकार, अग्नि आदि भिन्न- भिन्न देवताओं के आवाहन आदि कर्म होते हैं । लोग सुविधा के लिए एक वर्ष के लिए श्रावणी में यज्ञोपवीत को अभिमन्त्रित कर रख लेते हैं और आवश्यकता पड़ने पर धारणविधि से इसे पहन लेते हैं। यदि श्रावणीका य़ज्ञोपवीत न हो तो विधी से उसे संस्कृत कर ले।  🕉️💓🚩🍀🍃☘️💐🙏


SantoshKumar B Pandey at 9.05AM.

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